जानिए क्यों छोड़ा था भगवान विष्णु ने दुर्वाषा ऋषि पर अपना सुदर्शन चक्र

भागवत पुराण के अनुसार एक बार भगवान विष्णु ने ऋषि दुर्वाषा पर अपना अमोघ सुदर्शन चक्र छोड़ दिया था
कथा अनुसार भगवान विष्णु के भक्त राजा अंबरीष ने एक वर्ष तक एकादशी का व्रत रखा | व्रत की समाप्ति होने पर कार्तिक मास में उन्होंने तीन रात का उपवास किया और एक दिन यमुना में स्नान करके मधुवन में भगवान् विष्णु की पूजा की तत्पश्चात ब्राहम्णो को भोजन कराके उन्हें गौ दान में दी | जब ब्राह्मणो को सब कुछ मिल चूका तब राजा ने आज्ञा लेकर व्रत का पारण करने की तैयारी की | उसी समय शाप और वरदान देने में समर्थ ऋषि दुर्वाषा वहाँ अतिथि के रूप में पधारे ||

राजा अंबरीष उन्हें देखते ही खड़े हो गए , आसन देकर उन्हें बैठाया और भोजन के लिए उनसे प्रार्थना की | ऋषि ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली तथा आवश्यक कर्मो से निवृत होने के लिये वे नदीतट पर चले गए | इधर व्रत पारण का समय निकट आ रहा था | धर्मज्ञ अंबरीष ने धर्म संकट में पड़कर ब्राहम्णो के साथ परामर्श किया ||
उन्होंने कहा ब्राह्मण देवताओ  -ब्राह्मण को भोजन कराये बिना स्वयं खा लेना और व्रत का समय रहते पारण न करना दोनों ही दोष है तब उन्होंने ब्राहम्णो के साथ विचार करके कहा - श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है , नहीं भी करना है | इसलिए इस समय मै केवल जल से पारण कर लेता हूँ | अब वे ऋषि दुर्वासा की प्रतीक्षा करने लगे | ऋषि के आने पर जब राजा ने उनका अभिनन्दन किया तब उन्होंने समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है ||
उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे इसीलिए यह जानकर कि  राजा ने पारण कर लिया है उन्हें क्रोध आ गया तथा उन्होंने राजा को कहा - आज तुमने धर्म का उलंघन करके बड़ा अन्याय किया है , मुझे भोजन पर निमंत्रित किया किन्तु मुझे खिलाये बिना ही खा लिया ऐसा कहते कहते ऋषि क्रोध से जल उठे उन्होंने  राजा अंबरीष को मारने  के लिये अपनी एक जटा उखाड़कर  कृत्या (राक्षसी) उत्पन्न की | वह अपने हाथ में  तलवार ले राजा अंबरीष की और बढ़ी पर राजा उसे देखकर तनिक भी विचलित नहीं हुए वे ज्यो-के-त्यों खड़े रहे ||



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परमपुरुष परमात्मा ने भक्त की रक्षा के लिए पहले ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँप को भस्म कर देती है उसी प्रकार सुदर्शन ने दुर्वासाजी की कृत्या को जलाकर राख कर दिया उसके बाद चक्र ऋषि की और बढ़ने लगा तब वे भयभीत हो अपने प्राणो की रक्षा के लिए भागने लगे | सुदर्शन ने सम्पूर्ण त्रिलोक में उनका पीछा किया जब ऋषि को कोई रक्षक न मिला तब वे आदिप्रजापति ब्रह्मा जी के पास  गए किन्तु आदिप्रजापति ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा यह चक्र स्वयं नारायण का अस्त्र है तुम उन्ही की शरण में जाओ वही तुम्हारी रक्षा करेंगे | ऋषि भगवान के अस्त्र की ज्वाला से जल रहे थे अतः उन्होंने भगवान से रक्षा की प्रार्थना की

तब भगवान् ने कहा - दुर्वासा जी मै स्वयं भक्तो के अधीन हूँ | मै अपने भक्तो का एक मात्र आश्रय हूँ , जो भक्त सबको छोड़कर केवल मेरी शरण में आये है उन्हें छोड़ने का मै संकल्प भी कैसे कर सकता हूँ अतः उसी के पास जाइये जिसका अनिष्ट करने से आपको इस विपत्ति में पड़ना पड़ा है | निरपराध साधुओ के अनिष्ट की चेष्टा से अनिष्ट करने वाले का अमंगल ही होता है ||
इस प्रकार ऋषि ने राजा से क्षमा मांगी तब जाकर राजा की प्रार्थना के उपरांत सुदर्शन चक्र शांत हुए | 

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